पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी मानवतावादी विचारक-डॉ. श्रीप्रकाश मिश्र

पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी भारत की एक ऐसी हस्ती थी, जिन्होंने अपने कार्यों एवं विचारों से लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया. ये पेशे से एक महान राजनेता थे, जोकि भारतीय जन संघ नामक बड़ी पार्टी के अध्यक्ष थे. इसे वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नाम से जाना जाता है. उन्होंने भारत की आजादी के बाद लोकतंत्र को अलग परिभाषा देते हुए देश के निर्माण के लिए कई कार्य किये, जिससे वे आज भी स्मरणीय हैं. दीनदयाल जी को बचपन से ही समाज सेवा में समर्पित होने के संस्कार प्राप्त थे. सन 1937 में जब उन्होंने अपनी बीए की परीक्षा को प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के बाद एमए में प्रवेश लिया था, तब वे अपने दोस्त बलवंत महाशब्दे के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में शामिल हुए. इसमें उनके साथ उनके एक और सहपाठी सुंदर सिंह भंडारी भी इस संघ में शामिल हुए. उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक केबी हेडगेवार के साथ मुलाकात की, और खुद को पूरी तरह से संगठन में समर्पित करने का फैसला किया. सन 1942 से वे पूरे समय के लिए इस संघ के साथ जुड़कर उसके लिए काम करने लगे. उन्होंने संघ शिक्षा में प्रशिक्षण लेने के लिए नागपुर में 40 दिनों के ग्रीष्मकालीन आरएसएस शिविर में भाग लिया और फिर इसके प्रचारक बने. सन 1955 में प्रचारक के रूप में उन्होंने उत्तरप्रदेश के लखीमपुर जिले में काम किया.



दीनदयाल जी इन सभी के अलावा एक विचारक भी थे. वे अपनी समृद्ध संस्कृति के आधार पर देश को बढ़ावा एवं उसका विकास करना चाहते थे और अंग्रेजों द्वारा छोड़ी गई पश्चिमी अवधारणाओं को ख़त्म करना चाहते थे. आजादी के तुरंत बाद भारत में लोकतंत्र की स्थापना हुई थी, लेकिन दीनदयाल जी गुलामी के इन वर्षों के बाद भारत के बारे में थोड़ा चिंतित थे. हालाँकि उन्हें यह पता था कि भारत में लोकतंत्र शुरू से हैं यह अंग्रेजों की देन नहीं है. उन्होंने लोगों की सोच बदली कि लोकतंत्र केवल लोगों को गुलाम बनाने एवं उनका शोषण करने के लिए नहीं है, बल्कि मजदूरों की समस्याओं को दूर करने के लिए हैं. वे अपनी समस्या लेकर सरकार के पास उसके निवारण के लिए जा सकते हैं, उनका कहना था कि किसी भी व्यक्ति को अपने दृष्टिकोण को सामने रखने का पूरा अधिकार है. प्रत्येक व्यक्ति का सम्मान किया जाना चाहिए और शासन में शामिल किया जाना चाहिए. इस विचारधारा के चलते उन्होंने देश में लोकतंत्र की एक अलग परिभाषा को जन्म दिया.


दीनदयाल जी मानवतावाद को अधिक बढ़ावा देते थे. उन्होंने मानवतावाद को एक अलग तरीके से परिभाषित किया. उनका कहना था कि ‘मानव एक शरीर मात्र नहीं है, बल्कि वह एक मन, बुद्धि और आत्मा भी है. इसके बिना मानव शरीर का कोई अर्थ नहीं है.’ साथ ही उनका कहना था कि स्वतंत्र भारत को लोकतंत्र, व्यक्तिगत, समाजवाद, पूँजीवाद आदि जैसी पश्चिमी अवधारणाओं पर निर्भर नहीं होना चाहिए. क्योंकि यह भारत की सोच के विकास और उसके विस्तार में अड़चन डालने के लिए हैं. इससे देश का विकास नहीं हो सकता है.